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वो रोज़ मुझे एक चुप-सी मुस्कान दिया करती थी।
ना कोई सवाल, ना कोई जवाब।
बस… आँखों में कुछ कह जाने की कोशिश।

मैंने भी कभी हिम्मत नहीं की,
डरता था… शायद वो दूर न हो जाए।

फिर एक दिन,
वो आई… और एक लिफ़ाफ़ा मेरे हाथ में रखकर चली गई।

उस लिफ़ाफ़े में कोई ख़त नहीं था,
बस एक सूखा गुलाब…
और उसके नीचे लिखा था:

"काश तुमने एक बार रोका होता..."

मैं सन्न था।
समझ नहीं पाया…
क्या उसके जाने की वजह मैं था?
या मेरी खामोशी?

अब हर रोज़ वो लिफ़ाफ़ा खोलता हूँ,
और सोचता हूँ…
काश मोहब्बत भी बोल पाती।

पर अब कुछ नहीं बदलेगा…
क्योंकि जो दिल कभी उसके नाम धड़कता था,
अब बस… खामोशी से टूटता है।

वो रोज़ मुझे एक चुप-सी मुस्कान दिया करती थी। ना कोई सवाल, ना कोई जवाब। बस… आँखों में कुछ कह जाने की कोशिश। मैंने भी कभी हिम्मत नहीं की, डरता था… शायद वो दूर न हो जाए। फिर एक दिन, वो आई… और एक लिफ़ाफ़ा मेरे हाथ में रखकर चली गई। उस लिफ़ाफ़े में कोई ख़त नहीं था, बस एक सूखा गुलाब… और उसके नीचे लिखा था: "काश तुमने एक बार रोका होता..." मैं सन्न था। समझ नहीं पाया… क्या उसके जाने की वजह मैं था? या मेरी खामोशी? अब हर रोज़ वो लिफ़ाफ़ा खोलता हूँ, और सोचता हूँ… काश मोहब्बत भी बोल पाती। पर अब कुछ नहीं बदलेगा… क्योंकि जो दिल कभी उसके नाम धड़कता था, अब बस… खामोशी से टूटता है।

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